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________________ १९५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान हे हितग्राही मन को थिर कर सदगुरु की शिक्षा सुन ले। महामोह मदिरा को तज कर आत्म तत्त्व को ही गुन ले॥ अर्थ- यह संसारी जीव, नाना प्रकार के धर्मकार्य पुस्तकें जिनेन्द्र भगवान के मंदिर मठ छात्र और कीर्ति की रक्षा करने के लिये सदा व्यग्रचित्त रहता है। उन कार्यो से रंच मात्र भी इसे अवकाश नहीं मिलता। इसलिये न यह किसी प्रकार का आत्म ध्यान कर सकता। न इसकी बुद्धि निर्मल रह सकती है। और न शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति और निराकुलता रूप सुख ही मिल सकता है। अतः बुद्धिमानों को चाहिये कि वे इन सब बातों पर भले प्रकार विचार कर आत्मा के चिन्तवन आदि कार्यो में अच्छी तरह यत्न करें। १२. ॐ ह्रीं की,दिरक्षणचिन्तारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । _ . निजसौख्यस्वरूपोऽहम् । संसारी नाना धर्म कर्म में उलझा । इसलिए न अपने शुद्ध कार्य हित सुलझा ॥ जिन मंदिर आदिक पुण्य कार्य में रहता । निज कीर्ति हेतु ही पुण्य कर्म रत रहता ॥ अवकाश न मिलता यों ही भव जाता है । यह आत्म ध्यान तो तनिक न कर पाता है | अतएव शुद्ध चिदू प ध्यान में लाओ । हे बुद्धिमान अब तो आत्मा को ध्याओ ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१२॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अयं नि. । . (१३) अहं प्रांतः पूर्व तदनु च जगत् मोहवशतः, पर द्रव्ये चिंतासततकरणादाभवमहो । पर द्रव्यं मुक्त्वा विहरति चिदानंदनिलये, निजद्रव्ये यो वै तमिह पुरुषं चेतसि दधे ॥१३॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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