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________________ १८७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पाप कर्म करने वाला तो जीवित ही है मरा हुआ । जो स्वधर्म का सेवन करता जीवित है वह महा हुआ | अर्ध्यावलि नवम अध्याय शुद्ध चिद्रूप के घ्यान के लिए मोह त्याग की उपयोगिता अन्यदीया मदीयाश्च पदार्थाश्चेतनेरताः।। एतेऽदश्चितनं मोहो यत- किंचिन्न कस्यचित् ॥१॥ अर्थ- ये चेतन और जड़ पदार्थ पराये व अपने हैं, इस प्रकार का मन में चिंतवन करना ही मोह है। क्योंकि वास्तव में देखा जाय तो कोई पदार्थ किसी का नहीं है । १. ॐ ह्रीं अन्यदीयमदीयपदार्थविषयकविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्ममबोधस्वरूपोऽहम् । छंद राधिका चिद्रूप शुद्ध अतिरिक्त न कोई अपना । स्त्री पुत्रादिक वैभव धन सब सपना ॥ इनमें अपने पन और पराये पन का । चिन्तवन सदा है मोह सर्व जन जन का ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. । (२) . दत्तो मानोऽपमानो मे जल्पिता कीर्तिरुज्ज्वला | अनुज्ज्वलापकीर्तिर्वा मोहस्तेनेति चिंतनम् ॥२॥ अर्थ- इसने मेरा आदर सत्कार किया। इसने मेरा अपनाम अनादर किया इसने मेरी उज्ज्वल कीर्ति फैलाई। इस प्रकार का मन में विचार लाना ही मोह है । २. ॐ ह्रीं मानापमानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरभिमानस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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