SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान चित्र विचित्र नित्य व्यवहारिक सभी प्रसंग महादुखरूप | केवल निश्चय शुद्ध आत्मा ध्यान योग्य है शिव सुखरूप॥ अर्थ- जिस प्रकार क्शेश पिपासा की शांति के लिये जल के ऊपरी पुरी हुई काई को अलग कर शीतल सुरस निर्मल जल पिया जाता है। उसी प्रकार जो मनुन्य बुद्धिमान है। दुःखों से दूर करना चाहते है। वे समस्त संसार के विकल्प जालों को छोड़कर आत्म ध्यान रूपी अनुपम स्वच्छ अमृत का पान करते हैं। अपने चित्त को द्रव्य आदि की चिन्ता की ओर नहीं झुकने देते। ४. ॐ ह्रीं ब्रह्मामृतस्वरूपाय नमः । शिवसुधास्वरूपोऽहम् । पूर्ण संतृप्ति हित ज्यों नीर काई प्रथक कर पीते । उसी विधि द्रव्यपर को तज सुधी जन आत्म रस पीते || सर्व संसार की चिन्ता विकल्पादिक जो तज देते । न पर की ओर पल भर को झुका करते वे दृढ़ रहते ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥४॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । नात्मध्यानात्परं सौख्यं नात्मध्यानात् परं तपः । नात्मध्यानात्परो मोक्षपथः क्यापि कदाचन ॥५॥ अर्थ- इस आत्म ध्यान से बढ़कर न तो कहीं किसी काल में कोई सुख है। न तप हैं। और न मोक्ष ही है। अर्थात् जो कुछ है सो यह आत्मध्यान ही है। इसलिये उसी को परम कल्याण का कर्ता समझना चाहिये । ५. ॐ ह्रीं आत्मसौख्यस्वरूपाय नमः । आत्मानन्दस्वरूपोऽहम् । नहीं निज ध्यान से बढ़कर किसी भी काल में सुख है | न तप उत्तम न मोक्ष उत्तम ध्यान ही श्रेष्ठ शिवसुखहै ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy