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________________ १५४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन अमृत प्रवाहित करने वाली स्यादवाद मय जिनवाणी । इसका ही अवलंबन लेकर हो जाऊंगा मैं ज्ञानी || परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥६॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. / न चेतसा स्पर्शमहं करोमि सचेतनाचेतनवस्तुजाते । विमुच्य शुद्धं हि निजात्मतत्त्वं कचित्कदाचित्थमप्यवश्यम् ॥७॥ अर्थ- मेरी कामना है कि शुद्धचिद्रूप नामक पदार्थ को छोड़कर मैं किसी भी चेतन वा अचेतन पदार्थ का किसी देश और किसी काल में कभी अपने मन से स्पर्श न करूं। ७. ॐ ह्रीं सचेतनाचेतनवस्तुस्पर्शरहितास्पृष्टस्वरूपाय नमः । निजात्मतत्त्वस्वरूपोऽहम् । वीरछंद एक शुद्ध चिद्रूप नाम का जो पदार्थ है मेरे पास । उसे छोड़ कर कहीं न जाऊं उसका ही हो उर विश्वास॥ चेतन और अचेतन का स्पर्श नहीं मेरे द्वारा । किसी काल में किसी देश में करूं न कुछ कृत निज द्वारा॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ | परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥७॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) व्यवहारं समालंव्य येऽक्षि कुर्वन्ति निश्चये । शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिस्तेषामेवेतरस्य न ॥८॥ अर्थ- व्यवहारनय का अवलंबनकर जो महानुभाव अपनी दृष्टि को शुद्ध निश्चनय की ओर लगाते हैं। उन्हें ही संसार में शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति होती है। अन्य मनुष्यों को शुद्ध चिद्रूप का लाभ कदापि नहीं हो सकता ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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