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________________ १३३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पर की दुर्गंध न हो प्रभु निज की सुगंध ही महके । शिवमय निज नंदन वन अब मेरे गीतों से चहके ।। कासाराद्यपूचराणाममृतमिव नृणां वा निजौकः सुराणां वैधो रोगातुराणां प्रिय इव हदि मे शुद्धचिद्रूपनामा ॥३॥ अर्थ- जिस प्रकार स्त्रियों को अपना स्वामी, बलभद्रों को नारायण राजाओं को पृथ्वी गौओं को बछडे, चकवियों को सूर्य, चातकों को मेघ का जल, जलचर आदि जीवों को तालाब आदि मनुष्यों को अमृत, देवों को स्वर्ग; और रोगियों को वैद्य अधिक प्यारा लगता है। उसी प्रकार मुझे शुद्धचिद्रूप का नाम परम प्रिय मालूम होता है। इसलिये मेरी यह कामना है कि मेरा प्यारा शुद्धचिद्रूप सदा मेरे हृदय में विराजमान रहे । ३. ॐ ह्रीं भर्ताप्रियस्यादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । नीरोगस्वरूपोऽहम् । ताटक पत्नी को अपना पति प्रिय बलभद्रों को नारायण प्रिय । नृप को पृथ्वी गौ को बछड़ा चकवी को दिनकरअति प्रिय॥ मेघ नीर चातक को प्रिय है जल चर को तालाब सुप्रिय। मनुजों को गृह प्रिय देवों को स्वर्ग वैद्य रोगी को प्रिय || उसी भांति चिद्रूप शुद्ध का नाम मुद्दे भी प्यारा है । अतः शुद्ध चिद्रूप ह्रदय में बड़े प्रेम से धारा है | रहो सदा मेरे अंतर में मेरे परम शुद्ध चिद्रूप । तुम्हें प्राप्त कर कुछ न चाहिए तुम ही अंतरंग के भूप ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम | इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥३॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (४) शापं वा कलयंति वस्तुहरणं चूर्ण वधं ताडनं, छेदं भेदगदादिहास्यदहनं निंदाऽऽपदापीडनम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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