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________________ १३१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान संकल्प विकल्प न हों प्रभु अविकल्प दशा हो मेरी । अद्वैत भावना ही हो शिवपथ में मेरी चेरी ॥ अर्ध्यावलि षष्टम अध्याय शुद्ध चिद्रूप में निश्चलता का प्रतिपादन (9) जानति ग्रहिलं हतं ग्रहगणै ग्रस्तं पिशाचै: रुजा भग्नं भूरिपरीषहैर्विकलतां नीतं जराचेष्टितम् | मृत्यासन्नतयागतं विकृतितां चेद भ्रांतिमन्तं परे, चिद्रूपोऽहमिति स्मृतिप्रवचनं जानंतु मामंगिनः ॥१॥ अर्थ- चिद्रूप की चिंता में लीन मुझे अनेक मनुष्य बावला, खोटे ग्रहों से अस्त व्यस्त, पिशाचों से ग्रस्त, रोगों से पीड़ित, भांति भांति की परिषहों से विकल, बहुत बुढ्ढा, जल्दी मरने वाला होने के कारण विकृत, और ज्ञान शून्य हो घूमने वाला जानते हैं, सो जानो । परन्तु मैं ऐसा नहीं हूं। क्योंकि मुझे इस बात का पूर्ण निश्चय है कि मैं शुद्ध चित्स्वरूप हूं । १. ॐ ह्रीं पिशाचादिग्रसनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | रुजारहितोऽहम् । वीरछंद निज चिद्रूप शुद्ध चिन्ता में लीन प्रभो क्या पर से काम । ग्रह पिशाच से ग्रस्त रोग पीड़ित जड़ तन से भी क्या काम ॥ परीषहों से विकल शीघ्र पर सेवा से भी क्या है काम । ज्ञान शून्य हो जो भ्रमते हैं विकृत प्राणी से क्या काम || काम आग से जला हुआ है भूला है निज दृढ़ निष्काम। मैं तो दृढ़ निश्चयी स्वयं हूँ शुद्ध चित्स्वरूपी ध्रुवधाम || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ||१|| ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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