SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है तीन चौकड़ी का अभाव वे वीतराग भगवान तुल्य । जंगल में बसने वाले मुनि है सिद्ध स्वरूपी सिद्ध तुल्य॥ अर्थ- नरक मनुष्य तिर्यच और देव चारों गतियों में भ्रमण कर मैंने अनेकबार अनैक शत्रुओं को जीता। परन्तु शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के लिये उसके विरोधी महाबलवान मोहरूपी वैरी को कभी नहीं जीता । ७. ॐ ह्रीं चतुर्गतिभ्रमणरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निश्चलोऽहम् । नर सुर पशु नरक आदि में तो बहुत भ्रमा हूं स्वामी । जीते हैं शत्रु अनेकों पर दुखी हुआ हूं स्वामी ॥ चिद्रूप शुद्ध को मैंने अब तक न प्रभो पाया है । जो शत्रु मोह रूपी है वह विजय न कर पाया है | चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥७॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) मया निःशेषशास्त्राणि व्याकृतानि श्रुतानि च । तेभ्यो न शुद्धचिद्रूपं स्वीकृतं तीव्रमोहिना ||८|| अर्थ- मैंने संसार में अनंतबार कठिन अनेक शास्त्रों का भी व्याख्यान कर डाला । बहुत से शास्त्रों का श्रवण भी किया। परन्तु मोह से मूढ़ हो उनमें डो शुद्धचिद्रूप का वर्णन है, उसे कभी स्वीकार न किया । ८. ॐ ह्रीं निःशेषशास्त्रव्याख्यानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । सहजज्ञानस्वरूपोऽहम् । शास्त्रों का श्रवण अर्थ युत अरु व्याख्या भी मैं करता । पर मोह मूढ़ हो अपना चिद्रूप कथन ना पढ़ता || चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥८॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy