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________________ १०७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जब अनंतानुबंधी है तो है राग द्वेष का ही वितान । मिथ्यात्व भाव जब तक उर में है भव सागर दुख का विहान॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२१) आनन्दो जायतेऽत्यन्तः शुद्धचिद्रूपचिन्तने । निराकुलत्वरूपो हि सतां यत्तन्ममयोऽस्त्यसो॥२१॥ अर्थ- निराकुलता रूप (किसी प्रकरा की आकुलता न होना) आनन्द है और उस आनन्द की प्राप्ति सज्जनों को शुद्धचिद्रूप के ध्यान से ही हो सकती है; क्योंकि यह शुद्ध चिद्रूप आनन्द मय है आनन्द पदार्थ इससे जुदा नहीं है । २१. ॐ ह्रीं अतीन्द्रियानन्दसागराय नमः । आनन्दधामस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिद्रूप ध्यान ही है निराकुलता मय । इसके ही ध्यान से होता है जिया आनंद मय ॥ शुद्ध चिद्रूप के अनुभव में नहीं आकुलता । इसकी जब प्राप्ति होती होती है निराकुलता ॥२१॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) तं स्मरन् लभते ना तमन्यदन्यच्च केवलम् । याति यस्य पथा पांथस्तदेव लभते पुरम् ॥२२॥ अर्थ- जिस प्रकार पथिक मनुष्य जिस गांव के मार्ग को पकड़कर चलता है वह उसी गांव पहुंच जाता है । अन्य गांव के मार्ग से चलने वाला अन्य गांव में नहीं पहुंच सकता। उसी प्रकार जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप का स्मरण ध्यान करता है वह शुद्धचिद्रूप को प्राप्त करता है और जो धन आदि पदार्थो की आराधना करता है, वह उनकी प्राप्ति करता है। परन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि अन्य पदार्थो का ध्यान करे और शुद्धचिदप को पा जाय । २२. ॐ ह्रीं धनादिस्मरणरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । आत्मघनस्वरूपोऽहम् । N
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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