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________________ १०५ ___. श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जिनवर का मार्ग कठिन न कहीं तू कठिन समझता है विमूढ़ | यह परमानंदमयी पथ है क्यों विमुख हुआ है अरे मूढ़ ॥ है। उसी प्रकार यदि वही मन उससे उपेक्षा कर शुद्धचिद्रूप की ओर झुके उससे प्रेम करे तो देखते देखते ही इस जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाए । १७. ॐ ह्रीं कामिन्यादिसुखरहितचिद्रूपाय नमः ।। बोधश्रीसुखस्वरूपोऽहम् । मोह के उदय में ये जीव मगन होता है । अपनी संपत्ति नारियों में रमण होता है ॥ इनसे करके उपेक्षा ये स्वयं को ध्याए । मोक्ष की प्राप्ति हो ये परम सौख्य को पाए | शुद्ध चिद्रूप ही सर्वांश सौख्य का सागर । पूर्ण आनंद की अद्भुत महान है गागर ॥१७॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१८) विमुच्य शुद्धचिद्रूपचिंतनं ये प्रमादिनः । अन्यत् कार्य च कुर्वन्ति ते पिवंति सुधां विषम् ॥१८॥ अर्थ- जो आलसी मनुष्य सुख दुःख और उनके कारणों को भले प्रकार जानकर भी प्रमाद के उदय से शुद्धचिद्रूप की चिंता छोड़ अन्य कार्य करने लग जाते हैं, वे अमृत को छोड़कर महादुःखदायी विषपान करते हैं, इसलिये तत्वज्ञों को शुद्धचिद्रूप का सदा ध्यान करना चाहयि । १८. ॐ ह्रीं अन्यकार्यप्रयोजनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । - चैतन्यसुधास्वरूपोऽहम् । आलसी आदमी प्रमाद से दुख पाता है । जानकर भी ये नर अनजान बना जाता है | अमृत को छोड़कर विषपान किया करता है । शुद्ध चिद्रूप का ध्यानी ही कष्ट हरता है ॥१८॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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