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________________ ९९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान संसार विजेता बनने का शुद्धात्म तत्व ही है साधन । रत्नत्रय भक्ति ह्रदय में हो अंतर में हो चौ आराधन ॥ शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति के हैं जो भी अभिलाषी । चाहिए अपने चतुष्टय के बनें वे वासी ॥ उन्हें चिद्रूप शुद्धि प्राप्ति होगी निश्चय से । सुख की अनुभूति होगी उन्हें निज के आश्रय से ॥६॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (७) न द्रव्येण न कालेन न क्षेत्रेण प्रयोजनम् । केनचिचन्नैव भावेन लब्धे शुद्धचिदात्मके ||७|| अर्थ- परन्तु जिस समय शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति हो जाय, उस समय द्रव्य क्षेत्र काल भाव के आश्रय करने की कोई आवश्यकता नहीं । ७. ॐ ह्रीं शुभाशुभद्रव्यक्षेत्रादिविकल्परहितचिद्रूपाय नमः । ज्ञानमंदिरस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिद्रूप की जब प्राप्ति तुम्हें हो जाए 1 फिर चतुष्टय से नहीं काम उसे क्यों लाए ॥ शुद्ध चिद्रूप ही तो सौख्य का प्रदाता है । यही आनंद कंद गीत शुद्ध गाता है ॥७॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) परमात्मा परंब्रह्म चिदात्मा सर्वदृक् शिवः । नामनीमान्यहो शुद्धचिद्रूपस्यैव केवलम् ॥८॥ अर्थ- परमात्मा परंब्रह्म चिदात्मा सर्वदृष्टा और शिव ये समस्त नाम उसी शुद्ध चिद्रूप के हैं । ८. ॐ ह्रीं परमब्रह्मस्वरूपाय नमः । शिवसौख्यस्वरूपोऽहम् |
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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