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________________ ९६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन व्रत दयादान आदिक विकल्प तैरते सदा इसके ऊपर । यह निर्विकल्प गरिमाशाली शाश्वत अनंत गुण का है घर ॥ विविध फलों की प्राप्ति होती सदा सर्वोत्तम । इसका ही स्मरण करने का करो चेतन श्रम ॥ सिद्ध पद होता नहीं मोक्ष भी होता ही नहीं शुद्ध चिद्रूप स्मरण में कोई क्लेश नहीं ॥१॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२) दुर्गमा भोगभूः स्वर्गभूमिर्विद्याधरावनिः । नागलोकधरा चातिसुगमा शुद्धचिद्धरा ॥२॥ अर्थ- संसार में भोगभूमि स्वर्गभूमि विद्याधरलोक और नागलोक की प्राप्ति तो दुर्गम दुर्लभ है । परन्तु शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति अति सरल है । २. ॐ ह्रीं स्वर्गभूमिविद्याधरावन्याद्यपेक्षारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चित्सुखस्वरूपोऽहम् । भोग भू स्वर्ग भू विद्याधरों की भी नगरी । नाग सुरलोक प्राप्ति बहुत कठिन है सगरी ॥ किन्तु चिद्रूप शुद्ध प्राप्ति सरल ही जानो । इसके साधने से ज्ञान सौख्य मिलता हैं मानो ॥२॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (3) तत्साधने सुख ज्ञानं मोचनं जायते समं निराकुलत्वमभयं सुगमा तेन हेतुना ॥३॥ अर्थ- क्योंकि चिद्रूप के साधन में तो सुख, ज्ञान, मोचन, निराकुलता और भय का नाश ये साथ होते चले जाते हैं और भोग भूमि आदि के साधन बहुत काल के बाद दूसरे जन्म में होते हैं । ३. ॐ ह्रीं अभयशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानरविस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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