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________________ ४७ शक्तियाँ और ४७ नय ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि इस भगवान आत्मा में अनंत गुण हैं, अनंत धर्म हैं, अनंत शक्तियाँ हैं, अनंत स्वभाव हैं। ___ यद्यपि यह भगवान आत्मा इन सबका अखण्ड पिण्ड है; तथापि उसे यहाँ ज्ञानमात्र कहा जा रहा है; क्योंकि स्वपरप्रकाशक ज्ञान आत्मा का लक्षण है। ज्ञानलक्षण से जो लक्ष्यभूत आत्मा लक्षित किया जाता है, पहिचाना जाता है, जाना जाता है; वह आत्मा ज्ञानमात्र कहे जाने पर भी अनंत गुणों का अखण्ड पिण्ड है, परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनंत धर्मयुगलों का अखण्ड पिण्ड है, अनंत स्वभावों का स्वभाववान है और उछलती हुई अनंत शक्तियों का संग्रहालय है। यहाँ आत्मा को जानने का काम भी ज्ञान करता है और वह आत्मा ज्ञानलक्षण से ही जाना-पहिचाना जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानलक्षण से लक्षित आत्मा ज्ञानपर्याय में जानने में आता है। लक्षण भी ज्ञान और उस लक्षण से आत्मा की पहिचान भी ज्ञान ही करता है। अरे भाई ! परिणमित ज्ञान आत्मा का लक्षण है और ज्ञान परिणमन ही आत्मा को जानता है। प्रश्न : जब आत्मा में अनन्त गुण हैं तो उसे ज्ञानमात्र क्यों कहा? क्या ज्ञानमात्र के समान आत्मा को सुखमात्र भी कहा जा सकता है ? उत्तर : नहीं; क्योंकि ज्ञान आत्मा का लक्षण है और लक्षण से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आत्मा को ज्ञानमात्र कहने का एकमात्र यही कारण है। 'ज्ञानमात्र' पद के प्रयोग के संदर्भ में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य है १. पहली बात तो यह कि 'ज्ञानमात्र' पद से ज्ञान के साथ अविनाभावी रूपसे रहनेवाले गुणों का निषेध इष्ट नहीं है; अपितु पर और विकारी भावों का निषेध ही इष्ट है।
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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