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________________ - ४७ शक्तियाँ और ४७ नय तदसाधारणगुणत्वात्। तेन ज्ञानप्रसिद्धया तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धिः। ननु किमनया लक्षणप्रसिद्धया, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम्। नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धः। ननु किंतल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्धया ततो भिन्न प्रसिध्यति ? न ज्ञानाद्भिनं लक्ष्यं, ज्ञानात्मनोव्यत्वेनाभेदात्। तर्हि किं कृतो लक्ष्यलक्षणविभागः? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः। प्रसिद्धं हि ज्ञानं, ज्ञानमात्रस्य स्वके लिए यहाँ आत्मा को ज्ञानमात्र कहा जा रहा है। ज्ञान आत्मा का लक्षण है; क्योंकि ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है। आत्मा से भिन्न पुद्गलादि द्रव्यों में ज्ञान नहीं पाया जाता है। इसलिए ज्ञानलक्षण की प्रसिद्धि से ज्ञान के लक्ष्यभूत आत्मद्रव्य की सिद्धि होती है, प्रसिद्धि होती है। प्रश्न : इस ज्ञानलक्षण की प्रसिद्धि से क्या प्रयोजन है, क्या लाभ है? मात्र लक्ष्य ही प्रसिद्धि करने योग्य है, लक्ष्यभूत आत्मा की प्रसिद्धि करना ही उपयोगी है; क्योंकि आत्मा का कल्याण तो आत्मा के जानने से होगा। उत्तर : जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो; उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि नहीं हो सकती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है; उसे ही लक्ष्य की प्रसिद्धि होती है। यही कारण है कि पहले लक्षण को समझाते हैं, तदुपरान्त लक्षण द्वारा लक्ष्य को समझायेंगे। प्रश्न : ज्ञान से भिन्न ऐसा कौन-सा लक्ष्य है कि जो ज्ञान की प्रसिद्धि द्वारा प्रसिद्ध किया जाता है ? उत्तर : ज्ञान से भिन्न कोई लक्ष्य नहीं है; क्योंकि ज्ञान और आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से अभिन्न ही हैं। प्रश्न : यदि ऐसी बात है तो फिर लक्षण और लक्ष्य का विभाग किसलिए किया गया है ? उत्तर : प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्व के कारण लक्षण और लक्ष्य का विभाग किया गया है। ज्ञान प्रसिद्ध है; क्योंकि ज्ञानमात्र के स्वसंवेदन से सिद्धपना है।
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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