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________________ 76] [जिनागम के अनमोल रत्न अग्गिविषकिण्हसप्पादियाणि दोसं ण तं करेज्जण्हू। जं कुणदि महादोषं तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ।।728।। अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि दोसं करंति एयभवे। मिच्छत्तं पुण दोषं करेदि भवकोडिकोडीसु।।729 ।। मिच्छत्तसल्लविद्धा तिव्वाओ वेदणाओ वेदंति। विसलित्तकंडविद्धा जह पुरिसा णिप्पडीयारा।।730।। आग, विष, काला सर्प आदि जीव का उतना दोष नहीं करने जैसा महादोष तीव्र मिथ्यात्व करता है। आग आदि तो एक भव में ही दुख देते हैं, किन्तु मिथ्यात्व करोड़ों भवों में दुख देता है। मिथ्यात्व नामक शल्य से बींधे गये जीव तीव्र वेदना भोगते हैं, जैसे विषैले बाण से छैदे गये मनुष्यों का कोई प्रतिकार नहीं है। सम्मत्तस्स य लंभे तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो। सम्मईसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो।। लक्षूण वि तेलोक्के परिवडदि हु परिमिदेण कालेण। लक्ष्ण य सम्मत्तं अक्खयसोक्खं हवदि मोक्खं ।। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बदले में यदि तीनों लोक प्राप्त होते हों तो त्रैलोक्य की प्राप्ति से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति श्रेष्ठ है।।741 ।। तीनों लोक प्राप्त करके भी कुछ काल बीतने पर वे छूट जाते हैं, किन्तु सम्यक्त्व को प्राप्त करके अविनाशी सुख देने वाला मोक्ष प्राप्त होता है। 742 ।। लोभ से घिरा मनुष्य समस्त जगत को पाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता।।849 ।। इधर-उधर करने वाले मनरूपी बन्दर को सदा जिनागम में लगाना चाहिये। जिनागम में लगे रहने से वह मनरूपी बन्दर उस ज्ञानाभ्यास करने वाले में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं कर सकेगा।।764।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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