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________________ 74] [जिनागम के अनमोल रत्न ___ जो पर की निन्दा करके अपने को गुणी कहलाने की इच्छा करता है, वह दूसरे के द्वारा कड़वी औषधि पीने पर अपनी निरोगता चाहता है ।।373 ।। ___ सत्पुरूष दूसरों के दोष देखकर स्वयं लज्जित होता है। लोकापवाद के भय से वह अपनी तरह दूसरों के भी दोषों को छिपाता है।।374।। __ मनुष्य जन्म की दुर्लभता टीका-मनुष्य जन्म वैसे ही दुर्लभ है जैसे साधु के मुख में कठोर वचन, सूर्यमण्डल में अन्धकार, प्रचण्ड क्रोधी में दया, लोभी में सत्य वचन, मानी में दूसरे के गुणों का स्तवन, स्त्री में सरलता, दुर्जनों में उपकार की स्वीकृति, आप्ताभासों के मतों में वस्तु तत्त्व का ज्ञान दुर्लभ है । देश, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, ग्रहण, श्रवण और संयम से लोक में उत्तरोत्तर दुर्लभ है। ___ ...इस लोक में जीवन प्राप्त करके भी वह रोगरूपी महान् वज्रपात से महाभयग्रस्त रहता है। जैसे आकाश से अचानक वज्रपात होता है वैसे रोग अचानक आकर शरीर का घात करता है। बल, आयु, रूपादिक गुण तभी तक हैं जब तक शरीर में रोग नहीं होता। पेड़ की डाल में लगा फल तभी तक नहीं गिरता जब तक हवा नहीं चलती। उसे अपने शरीर में पीड़ा होने पर सुख पूर्वक कल्याण करना शक्य नहीं है। घर के चारों ओर से न जलने पर ही पुरूष कुछ कर सकता है। घर भस्म हो जाने पर कुछ नहीं कर सकता। ...मनुष्य के द्वारा धर्म तत्व का जानना कठिन है। जानकर भी उसमें प्रयत्नशीलता कष्टकर है। उस धर्म को जानकर, तत्त्वदृष्टि से सम्पन्न मनुष्यो! धैर्य धारण करके समीचीन धर्म के विषय में एक क्षण के लिये भी प्रमाद मत करो। पापकार्य से अति सुख कर होने पर भी यह धर्म मनुष्यों को क्षण भर के लिये दुष्कर होता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यह निश्चय ही धर्मों की गुरूता का फल है। यह मनुष्य एक कौड़ी में भी महान गुण मानकर उसके लिये अतुल श्रम करता है, किन्तु अज्ञानी देव और मनुष्यों की ऋद्धि के मूल
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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