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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [71 सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को लाख करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त हुआ अन्तर्मुहुर्तमात्र में क्षय करता है।107 ।। अज्ञानी के दो, तीन, चार, पांच आदि उपवास करने से जितनी विशुद्धि होती है उससे बहुत गुनी शुद्धि ज्ञानी को भोजन करते हुए होती है। ___इतनी शीघ्रता से कर्मों को काटने की शक्ति अन्य तप में नहीं है, यह स्वाध्याय का ही अतिशय है। 108 ।। अपने और दूसरों के उद्धार के उद्देश्य से जो स्वाध्याय में लगता है वह अपने भी कर्मों को काटता है और उसमें उपयुक्त दूसरे के भी कर्मों को काटता है। सर्वज्ञ भगवान की जो आज्ञा है कि कल्याण के इच्छुक जिनशासन के प्रेमी को नियम से धर्मोपदेश करना चाहिये। दूसरों को उपदेश करने पर वात्सल्य और धर्मप्रभावना होती है। श्रुत भी रत्नत्रय के कथन में संलग्न होने से तीर्थ है। 110।। प्राणों के कण्ठ में आ जाने पर भी साधु को आगम का अभ्यास अवश्य करना चाहिये।।153 ।। उस वस्तु को छोड़ देना चाहिये जिसको लेकर कषायरूपी अग्नि उत्पन्न होती है और उस वस्तु को अपनाना चाहिये जिसके अपनाने में कषायों का उपशम हो।।264।। टीका-कषाय समीचीन ज्ञानरूपी दृष्टि को मलिन कर देती है। सम्यग्दर्शनरूपी वन को उजाड़ देती है। चारित्ररूपी सरोवर को सुखा देती है। तपरूपी पत्रों को जला देती है। अशुभ कर्मरूपी बेल की जड़ जमा देती है। शुभकर्म के फल को रसहीन कर देती है। अच्छे मन को मलिन करती है। हृदय को कठोर बनाती है। प्राणियों का घात करती है। वाणी को असत्य की ओर ले जाती है। महान गुणों का निरादर करती है। यशरूपी धन को नष्ट IF
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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