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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [69 धर्म के प्रभाव से श्वान (कुत्ता) भी स्वर्गलोक में जाकर उत्पन्न होता है और पाप के प्रभाव से स्वर्ग लोक का महान ऋद्धिधारी देव भी श्वान में आकर उत्पन्न हो जाता है तथा प्राणियों को धर्म के प्रभाव से और भी वचन के द्वारा न कही जा सके ऐसी अहमिन्द्रों की सम्पदा तथा अविनाशी मुक्ति सम्पदा प्राप्त हो जाती है। विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।।32।। विद्या-ज्ञान, वृत्त-चारित्र इनकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल का उदय यह सम्यक्त्व के नहीं होने पर नहीं होते, जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल प्राप्ति नहीं होती है। ___ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।।3।। जिसके दर्शन मोह नहीं, ऐसा गृहस्थ वह मोक्षमार्ग में स्थित है और मोहवान अनगार-गृहरहित मुनि वह मोक्षमार्गी नहीं है। इसलिये मोहवान मुनि से दर्शनमोह रहित गृहस्थ वह श्रेयान्-सर्वोत्कृष्ट है। न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।34।। इस प्राणी को सम्यग्दर्शन समान तीन काल-तीन लोक में अन्य कल्याण नहीं और मिथ्यात्व समान तीनकाल-तीनलोक में अन्य कोई अकल्याण नहीं है। - आगम में निरन्तर लगी हुई बुद्धि मुक्तिरूपी स्त्री को प्राप्त करने में दूती समान है इसलिए भवभीरू भव्यजीवों को यत्नपूर्वक अपनी बुद्धि शास्त्र अध्ययन, श्रवण, मनन आदि में लगाना चाहिए। -आ. अमितगति : योगसार प्राभूत, चारित्र अधि. गाथा-761
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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