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________________ 66] [जिनागम के अनमोल रत्न को चरितार्थ (सफल) करें। ध्यान और स्वाध्याय ऐसे दोनों की सम्पत्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है-स्वानुभव में आ सकता है। येऽत्राहुन हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति। तेऽर्हन्मताऽनभिज्ञत्वं ख्यापयन्त्यात्मनः स्वयम्।।82।। जो कोई यहां ऐसा कहता है कि ध्याता पुरूष के लिये यह काल (पंचमकाल) ध्यान के योग्य नहीं, वे जीव स्वयं अपना अहँत के मत विषयक अज्ञान प्रदर्शित करते हैं। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः।।118।। ज्ञाता की सत्ता में ही ज्ञेय है, वह ध्येयता को प्राप्त होता है; इसलिये ज्ञानस्वस्वरूप आत्मा ही ध्येयतम सर्वोत्कृष्ट ध्येय है।। पूर्वं श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्ततः। तत्रैकाग्र्यं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत्।।144।। प्रथम तो श्रुत-आगम द्वारा अपने को अपने में आत्म-संस्कारों से संस्कारित करे, उसके बाद ऐसे संस्कार प्राप्त स्व-आत्मा में अपने को एकाग्रता प्राप्त कर कुछ भी चिन्तवन न करे, अर्थात् स्वस्वरूप में सुदृढ़ता की प्राप्ति के लिये अन्य चिन्ता को छोड़कर अपने में लीन हो सकता है। यस्तु नालम्बते श्रौती भावनां कल्पना-भयात्। सोऽवश्यंमुह्यति स्वस्मिन्बहिश्चिन्तांविभर्तिच।।145॥ जो ध्याता कल्पना के भय से श्रोती (श्रुतात्मक) भावना का अवलंबन नहीं लेता तो वह अवश्य अपनी आत्मा के विषय में मोह को प्राप्त होता है और बाह्य चिन्ता को धारण करता है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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