SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48] [जिनागम के अनमोल रत्न (7) इष्टोपदेश यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियदूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गब्यूति, क्रोशार्धे किं स सीदति?।।4।। आत्मभाव यदि मोक्षप्रद, स्वर्ग है कितनी दूर। दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर।। आत्मा में लगा हुआ जो परिणाम भव्य प्राणियों के मोक्ष प्रदान करता है, उस मोक्ष देने में समर्थ आत्मपरिणाम के लिये स्वर्ग कितना दूर है? कुछ नहीं। वह तो निकट ही समझो। दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संबसन्ति नगे नगे। स्वस्वकार्यवशाधान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे।।१।। दिशा देश से आयकर, पक्षी वृक्ष बसन्त । प्रात होत निज कार्यवश, इच्छित देश उड़न्त।। देखो, भिन्न-भिन्न दिशाओं व देशों से उड़-उड़कर आते हुए पक्षीगण वृक्षों पर आकर रैनबसेरा करते हैं और सवेरा होने पर अपने-अपने कार्य के वश से जुदा-जुदा दिशाओं व देशों में उड़ जाते हैं। विपद्भवपदावर्ते, पदिकेबातिबाह्यते । यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुरा विपदः पुरः।। जब तक एक विपद टले, अन्य विपद बहु आय। पदिका जिमि घटियन्त्र में, बार-बार भरमाय।। जब तक संसाररूपी पैर से चलाये जाने वाले घटीयंत्र में एक पटली सरीखी एक विपत्ति भुगतकर बीतती है तब तक दूसरी बहुत सी विपत्तियां सामने आकर उपस्थित हो जाती हैं। 12 ।। विपत्तिमात्मनो मूढः, परेषामिव नेक्षते। दह्यमानमृगाकीर्ण बनान्तर तरु स्थवत्।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy