SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [जिनागम के अनमोल रत्न ऐसा होने से ही जिननाथ के मार्ग में मुनिवर्ग में स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकर के समूहों में राजबल्लभ नौकर समान शोभा देता है (अर्थात् जिस प्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसी प्रकार अन्वश मुनि शोभा नहीं देता ) । कलश 244 ।। जो जोड़ता चित्त दव्य-गुण- पर्याय - चिन्तन में अरे ! रे मोह - विरहित श्रमण कहते अन्य के वश ही उसे ।।145 ।। सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मोहा जड़ा वयम् ॥ 46] सर्वज्ञ - वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरे रे ! हम जड़ हैं कि उसमें भेद मानते हैं। कलश 253 ।। (शुद्ध आत्मतत्त्व मैं ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा - ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियों को होता है; संसाररूपी रमणी को प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता । क. 261 ।। णाणा जीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हबे लद्धी । तम्हा बयणबिवादं सगपर समएहिं बज्जिज्जो ।।156 ।। हैं जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नाना विध कही । अतएव ही निज- पर समय के साथ वर्जित वाद भी ।। नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार का कर्म है, नाना प्रकार की लब्धि है; इसलिये स्वसमयों तथा परसमयों के साथ वचन - विवाद वर्जने योग्य है । 1156 ।। भावार्थ- जगत में जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकार के हैं; इसलिये सर्व जीव समान विचारों के हों ऐसा होना असम्भव है । इसलिये पर जीवों को समझा देने की आकुलता करना योग्य नहीं है। स्वात्माबलम्बनरूप निज हित में प्रमाद न हो इस प्रकार रहना ही कर्त्तव्य है ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy