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________________ 34] [जिनागम के अनमोल रत्न संतोष हो जाता है, परन्तु मैं आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान से अपना जन्म सफल मानता हूँ।।8-6।। दुर्लभोऽत्र जगन्मध्ये चिद्रूपरूचिकारकः। ततोऽपि दुर्लभं शास्त्रं चिद्रूपप्रतिपादकं ।। ततोऽपि दुर्लभो लोके गुरूस्तदुपदेशकः। ततोऽपि दुर्लभं भेदज्ञानं चिंतामणिर्यथा।। जो पदार्थ चिद्रूप में प्रेम कराने वाला है वह संसार में दुर्लभ है, उससे भी दुर्लभ चिद्रूप के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है। यदि शास्त्र भी प्राप्त हो जाये तो चिद्रूप के स्वरूप का उपदेशक गुरू नहीं मिलता, इसलिये उससे गुरू की प्राप्ति दुर्लभ है। गुरू भी प्राप्त हो जाये तो जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति दुर्लभ है, उसी प्रकार भेदविज्ञान की प्राप्ति भी दुष्प्राप्य है।।8-8,9।। __मैंने शुद्धचिद्रूप के स्वरूप को भले प्रकार जान लिया है, इसलिये मेरे चित्त में देवेन्द्र, नागेन्द्र और नरेन्द्रों के सुख जीर्ण तृण के समान जान पड़ते हैं; परन्तु जो मनुष्य अल्पज्ञानी है अपने और पर के स्वरूप का भले प्रकार ज्ञान नहीं रखते वे निंदित स्त्रियां, लक्ष्मी, घर, शरीर और पुत्र से उत्पन्न हुए सुख को जो कि दुख स्वरूप है, सुख मानते हैं यह बड़ा आश्चर्य है।।9-10।। जो दुर्बुद्धि जीव शुद्धचिद्रूप का स्मरण न कर अन्य कार्य करना चाहते हैं वे चिन्तामणि रत्न को छोड़ पाषाण ग्रहण करना चाहते हैं-ऐसा समझना चाहिये। 9-14।। मूढ़ पुरूष निरन्तर अहंकार के वश रहते हैं-अपने से बढ़कर किसी को नहीं समझते, इसलिये अतिशय निर्मल अपने शुद्धचिद्रूप की ओर वे भी नहीं देख पाते । 10-1।। यद्यपि संसार में शान्तचित्त, विद्वान, यमवान, नियमवान, बलवान, धनवान, चारित्रवान, उत्तम वक्ता, शीलवान, तप पूजा, स्तुति और नमस्कार
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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