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________________ 28] [जिनागम के अनमोल रत्न जिस प्रकार वज्र, पर्वत को चूर्ण-चूर्ण कर देता है, उसी प्रकार जो मनुष्य 'शुद्धचिद्रूप' की चिन्ता करने वाला है, वह यदि अन्य किसी थोड़े से भी कार्य के लिये जरा भी चिन्ता कर बैठता है तो 'शुद्धचिद्रूप' के ध्यान से सर्वथा विचलित हो जाता है।।3-6।। इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि चिन्ता का अभाव, एकान्त स्थान, आसन्न भव्यपना, भेदविज्ञान और दूसरे पदार्थों में निर्ममता ये 'शुद्धचिद्रूप' के ध्यान में कारण है- बिना इनके शुद्धचिद्रूप का कदापि ध्यान नहीं हो सकता।।3-12।। जो मनुष्य ज्ञानी है-संसार की वास्तविक स्थिति का जानकार है वहमनुष्य, स्त्री, तिर्यञ्च और देवों के स्थिति गति वचन को, नृत्य-गान को, शोक आदि को, क्रीड़ा, क्रोध आदि को, मौन को, भय हँसी, बुढ़ापा, रोना, सोना, व्यापार, आकृति, रोग, स्तुति, नमस्कार, पीड़ा, दीनता, दुख, शंका, भोजन और श्रृंगार आदि को संसार में नाटक के समान मानता है।।3-13।। . जिस मनुष्य के हृदय में, सभा में, सिंहासन पर विराजमान हुए चक्रवर्ती और इन्द्र के ऊपर दया है, शोभा में रति की तुलना करने वाली इन्द्राणी और चक्रवर्ती की पटरानी में घृणा है, और जिसे सर्वोत्तम इन्द्रियों के सुखों का स्मरण होते ही अतिकष्ट होता है, वह मनुष्य तत्वज्ञानियों में उत्तम तत्त्वज्ञानी कहा जाता है ।।3-14।। संसार में अनेक मनुष्य राजा आदि के गुणगान कर काल व्यतीत करते हैं। कई एक विषय, रति, कला, कीर्ति और धन की चिन्ता में समय बिताते हैं, और बहुत से सन्तान की उत्पत्ति का उपाय, पशु, पक्षी, वृक्ष, गौ, बैल आदि का पालन, अन्य की सेवा, शयन, क्रीड़ा, औषधि आदि का सेवन, देव, मनुष्यों के रंजन और शरीर का पोषण करते-करते अपनी समस्त आयु के काल को समाप्त कर देते हैं, इसलिये जिनका समय स्व-स्वरूप, 'शुद्धचिद्रूप' की प्राप्ति में व्यतीत हो ऐसे मनुष्य संसार में विरले ही हैं। 3-16।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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