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________________ 26] [जिनागम के अनमोल रत्न क्वयांति कार्याणि शुभाशुभानि। क्वयांति संगाश्चिदचित्स्वरूपाः। क्वयांति रागादय एव शुद्ध । चिद्रूप कोहंस्मरणे न विद्मः।। हम नहीं कह सकते कि 'शुद्धचिद्रूपोहं' मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ, ऐसा स्मरण करते ही शुभ-अशुभ कर्म, चेतन-अचेतन स्वरूप परिग्रह और रागद्वेष आदि दुर्भाव कहाँ लापता हो जाते हैं?।।2-8।। जिस प्रकार पर्वतों में मेरू, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धातुओं में स्वर्ण, पीने योग्य पदार्थों में अमृत, रत्नों में चिन्तामणि रत्न, ज्ञानों में केवलज्ञान, चारित्रों में समतारूप चारित्र, आप्तों में तीर्थंकर, गायों में कामधेनु, मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवों में इन्द्र महान और उत्तम हैं, उसी प्रकार ध्यानों में 'शुद्धचिद्रूप' का ध्यान ही सर्वोत्तम है। 2-9।। जो पुरूष शुद्धचिद्रूप की चिन्ता में रत है, सदा शुद्धचिद्रूप का विचार करता रहता है, वह चाहे दुर्बर्ण-काला, कबरा, बूचा, अंधा, बोना, कुबड़ा, नकटा, कुशब्द बोलने वाला, हाथ रहित-टूटा, गूंगा, लूला, गंजा, दरिद्र, मूर्ख, बहिरा और कोढ़ी आदि कोई भी क्यों न हो विद्वानों की दृष्टि में प्रशंसा के योग्य है। सब लोग उसे आदर की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु अन्य सुन्दर भी मनुष्य यदि 'शुद्धचिद्रूप' की चिन्ता से विमुख है तो उसे कोई अच्छा नहीं कहता। 2-11।। . शुद्धचिदूपसद्दशं ध्येयं नैव कदाचन। . उत्तम क्वापि कस्यापि भूतमस्ति भविष्यति॥ . 'शुद्धचिद्रूप' के समान उत्तम और ध्येय-ध्याने योग्य पदार्थ न कहीं हुआ, न है और न होगा, इसलिये 'शुद्धचिद्रूप' का ही ध्यान करना चाहिये। 2-15।। द्वादशांगं ततो बाह्यं श्रुतं जिनवरोदितं । उपादेय तया शुद्धचिदू पस्तत्र भाषितः।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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