SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 230] [जिनागम के अनमोल रत्न ___ 13. चतुर्दश गुणस्थानाधिकार : जिन-प्रतिबिम्बका माहात्म्य जाके मुख दरससौं भगतके नैननिकौं , थिरताकी बानि बढ़े चंचलता विनसी। मुद्रा देखि केवलीकी मुद्रा याद आवै जहां, जाके आगै इंद्रकी विभूति दीसै तिनसी।। जाकौ जस जपत प्रकास जगै हिरमैं , __ सोइ सुद्धमति होइ 'हुती जु मलिनसी। कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सोहै जिनकी छबि सुविद्यमान जिनसी।।2।। (जिन-मूर्ति पूजकों की प्रशंसा) जाके उर अंतर. सुदिष्टि लहर लसी, विनसी मिथ्यात मोहनिद्राकी ममारखी। सैली जिनशासनकी फैली जाकै घट भयौ , गरबको त्यागी षट - दरबको पारखी ।। आगमकैअच्छर मरे हैं जाके श्रवनमैं , हिरदै - भंडारमैं समानी वानी आरखी। कहत बनारसी बलप भवथिति जाकी , सोई जिन प्रतिमा प्रवांनै जिन सारखी ।।3।। (पाँच कारणोंसे सम्यक्त्वका विनाश होता है) ग्यान गरब मति मंदता, निठुर वचन उदगार । रूदभाव आलस दसा , नास पंच परकार ।। 37।। ग्रन्थ समाप्ति और अन्तिम प्रशस्ति : दोहा घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन । मति - मदिराके पानसौं, मतवाला समुझै न ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy