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________________ 220] [जिनागम के अनमोल रत्न (ज्ञानी जीव विषयों में निरंकुश नहीं रहते ) ग्यानकला जिनके घट जागी, ते जगमांहि सहज वैरागी । ग्यानी मगन विषैसुखमांही, यह विपरीति संभवै नांही । । ४१ ।। 8. बंध द्वार : कर्मबंधका कारण अशुद्ध उपयोग है कर्मजाल - वर्गनासौं जगमैं न बंधै जीव, बंधै न कदापि मन-वच - काय - जोगसौं । चेतन अचेतनकी हिंसासौं न बंधै जीव, बंधै न अलख पंच - विषै- विष रोगसौं ॥ कर्मसौं अबंध सिद्ध जोगसौं अबंध जिन, .....हिंसासौं अबंध साधु ग्याता विषै- भोगसौं । इत्यादिक वस्तुके मिलापसौं न बंधै जीव, बंधै एक रागादि असुद्ध उपयोगसौं || 4 || (चार पुरुषार्थों पर ज्ञानी और अज्ञानी का विचार) कुलका आचार ताहि मूरख धरम कहै, पंडित धरम कहै वस्तु के सुभाउकौं । खेहकौ खजानौं ताहि अग्यानी अरथ कहै, ग्यानी कहै अरथ दरब-दरसाउकौं ।। दंपतिको भोग ताहि दुरबुद्धी काम कहै, सुधी काम कहै अभिलाष चित चाउकौं । इंद्रलोक थानकौं अजान लोग कहैं मोख, सुधी मोख कहै एक बंध के अभाउकौं ।।14।। -
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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