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________________ 20] [जिनागम के अनमोल रत्न चेल्ला-चेल्ली पुत्थियहिं तूसइ मूदु णिभंतु। एयहिं लज्जउ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु।।88॥ अर्थ :- अज्ञानी चेला-चेली पुस्तकादिक से हर्षित होता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है और ज्ञानीजन इन सब बाह्य पदार्थों से शरमाता है, क्योंकि वह इन सबको बंध का कारण जानता है। चट्टहिं पट्टहिं कुंडियहिं चेल्ला-चेल्लियएहिं। मोहु जणेविणु मुणिबरहँ उप्पहि पाडिय तेहिं।।89॥ अर्थ :- पीछी-कमंडल-पुस्तक और मुनि श्रावकरूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेली-ये संघ मुनिवरों को मोह उत्पन्न कराके उन्हें उन्मार्ग में पटक देते हैं। जे जिण-लिंगु धरेबि मुणि इट्ठ-परिग्गह लेंति। छद्दि करेविणुतेजि जिय सा पुण छद्दि गिलति।।91॥ अर्थ :- जो मुनि जिनलिंग को धारण करके भी इष्ट-परिग्रहों को ग्रहण करते हैं, हे जीव! वे ही बमन करके पुनः उस बमन को निगलते हैं। बालहँ कित्तिहि कारणिण जे शिव-संगु चयंति। खीला-लग्गिवि ते विमुणि देउलु देउ डहति।।92॥ अर्थ :- जो कोई लाभ और कीर्ति के कारण परमात्मा के ध्यान को छोड़ देते हैं, वे ही मुनि लोहे के कीले के लिये अर्थात् इन्द्रिय सुख के निमित्त मुनिपद योग्य शरीररूपी देवस्थान को तथा आत्मदेव को भव की आताप से भस्म कर देते हैं। काउण णग्गरूवं वीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं। अहिलससि किंण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिटुं॥ अर्थ :- भयानक देंह के मैल से युक्त जले हुए मुर्दे के समान रूपरहित ऐसे वस्त्र रहित नग्नरूप को धारण करके हे साधु! तू पर के घर भिक्षा को
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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