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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] ____ [207 यत्रानुभूयमानोऽपि सर्वेरावालमात्मनि। मिथ्याकर्मविपाकाद्वै नानुभूतिः शरीरिणाम्।।14।। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने वाला ज्ञान है। वह ज्ञान शुद्ध है, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है और सिद्धों के समान है।।13।। यह अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव बालकों से लेकर वृद्धों तक समस्त आत्माओं में होता है।4।। हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः। प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तस्य व्यत्ययात्।।209 ।। दृग्मोहे ऽस्तङ्गते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत्। न भवेद्विघ्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः।।210।। मिथ्यात्वकर्म का अनुदय शुद्ध आत्मा के ज्ञान में कारण है और उसका तीव्र उदय इसमें बाधक है, क्योंकि मिथ्यात्व का उदय होने पर शुद्ध आत्मा के ज्ञान का विनाश देखा जाता है।।209 ।। दर्शनमोहनीय का अभाव होने शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है इसलिये चारित्रावरण का किसी भी प्रकार का उदय उसका बाधक नहीं है। 210।। चारित्रमोहनीय का कार्य आत्मा को चारित्र से च्युत करना है आत्मदृष्टि से च्युत करना उसका काम नहीं, क्योंकि न्याय से विचार करने पर इतर दृष्टियों के समान वह भी दृष्टि है। 212 ।। यति के अट्टाइस मूलगुण होते हैं। वे ऐसे हैं जैसे कि वृक्ष का मूल होता है। कभी इनमें से न तो कोई कम होता है और न अधिक ही होता है। 243 ।। वास्तव में रागादि भाव ही हिंसा है, अधर्म है, व्रत से च्युत होना है और रागादि का त्याग करना ही अहिंसा है, व्रत है अथवा धर्म है। 254।। । रागादि भावों के होने पर कर्मों का बंध नियम से होता है और उस बंधे हुए कर्म के उदय से आत्मा को दुःख होता है इसलिये रागादि भावों का होना आत्मबंध है यह बात सिद्ध होती ।।255 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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