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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [199 है सुरों के भी सुख न , स्वाभाविक प्रसिध उपदेश से । वे रम्य विषयों में रमें , हैं दुखित वेदन देह से ।।1।। हैं सुखित सम आसक्त चक्री , शक्री भी देहादि की । वृद्धि करें भोगों से जो, उपयोग मूलक शुभमयी ।।3।। सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इन्दिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।।76।। परतंत्र बाधासहित वा, विच्छिन्न कारण बंध का । है विषम इन्द्रिय-प्राप्त सुख, वह 'दुःख ही ऐसा कहा ।। ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि धोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो।।77।। जो 'पुण्य एवं पाप में , अन्तर नहीं ' ना मानता । हो मोह से आछत्र घोर , अपार भव में घूमता ॥ यदि त्याग पापारम्भ भी शुभचरित में उद्यममती । मोहादिको ना छोड़ता, शुद्धात्म - प्राप्ती ना कभी ।।79।। जो जानता अरहन्त को , द्रव्यत्व - गुण - पर्याय से । वह जानता है आत्मा , हो मोहक्षय तब नियम से ।।80॥ अरहन्त सब ही उस विधि से , नष्ट कर कर्मांश को । देकर तथाविध देशना , मुक्ति गये हैं - नमन हो ।।82।। जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।86 ।। जिन शास्त्र - प्रत्यक्षादि से , जो अर्थ जाने नियम से। हो मोहचयक्षय शास्त्र - अध्ययनीय सम्यक् इसलिए॥ अर्थ :- जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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