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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [195 देहरूपी देवालय में तू स्वयं शिव बस रहा है और तू उसे अन्य देवल में ढूढता फिरता है। अरे! सिद्धप्रभु भिक्षा के लिये भ्रमण कर रहा है यह देखकर मुझे हंसी आती है। 186 ।। अरे अजान! दो पथ में गमन नहीं हो सकता, दो मुख वाली सुई से कथरी नहीं सिली जाती; वैसे इन्द्रिय सुख और मोक्षसुख - ये दोनों बातें एक साथ नहीं बनती।।213।। अरे! उस घर का भोजन रहने दो कि जहाँ सिद्ध का अवर्णवाद होता हो। ऐसे जीवों के साथ जयकार करने से भी सम्यक्त्व मलिन होता है ।।211 ।। विनय का महत्व जो विनय रहित है उसका आगम अभ्यास व्यर्थ है। विनय शास्त्र अभ्यास का फल है। पुण्योदयजन्य सांसारिक सुख तथा मोक्ष सुख विनय का ही फल है अथवा गर्भकल्याण । जन्मकल्याण, दीक्षाकल्याणक, केवलकल्याणक और मोक्ष कल्याणक-ऐसे पाँच कल्याण जीव को विनय से ही प्राप्त होते हैं। -आ कुन्दकुन्ददेव : मूलाचार पंचाचार अधिकार गाथा-2011 ऐसे जिनशासन को नमस्कार हो... वह जिनागम सर्वप्राणियों का रक्षण करने वाला है उसका जिन जीवों ने आश्रय लिया है वे अनंत संसार सागर को। उलंघकर मुक्त हुए हैं। ऐसा यह जिनशासन सदा वद्धिंगत हो। इस जिनशासन को मैं नमस्कार करता हूँ। -आ कुन्दकुन्दस्वामी : मूलाचार प्रत्याख्यान अधिकार गाथा-11 60880038856006
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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