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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [193 अर्थ :- जगतिलक आत्मा को छोड़कर जो परद्रव्य में रमण करते हैं... तो क्या मिथ्यादृष्टियों के माथे पर सींग होते होंगे? जो विद्वान आत्मा का व्याख्यान तो करते हैं परन्तु अपना चित्त उसमें नहीं लगाते तो अनाज के कणों से रहित बहुत सा पयाल संग्रह किया है।।84।। __ हे वत्स! बहुत पढ़ने से क्या है? तू ऐसी ज्ञान चिनगारी प्रगटाना सीख ले-जो प्रज्वलित होते ही पुण्य और पाप को क्षणमात्र में भस्म कर दे।।87।। अन्तो पत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तं णवर सिक्खियव्वं जिं जरमरणक्खयं कुणहि।।98।। अर्थ :- श्रुतियों का अंत नहीं है, काल थोड़ा है और हम मंदबुद्धि हैं, अतः केवल इतना ही सीखना योग्य है कि जिससे जन्म-मरण का क्षय हो। . एक तो स्वयं मार्ग को जानते नहीं और दूसरे किसी से पूछते भी नहीं, ऐसे मनुष्य वन-जंगल तथा पहाड़ों में भटक रहे हैं, उनको तू देख।।114 ।। जिसके जीते जी पांच इन्द्रिय सहित मन मर गया उसको मुक्त ही जानो; निर्वाणपथ उसने प्राप्त कर लिया। 1123 ।। जिसने देह से भिन्न निज परमार्थतत्व को नहीं जाना, वह अन्धा दूसरे अन्धे को मुक्तिपथ कैसे दिखलायेगा।128 ।। सुगुरू की महान छत्रछाया पाकर भी हे जीव! तू सकल काल संताप को ही प्राप्त हुआ। परमात्मा निजदेह में बसते हुए भी तूने पत्थर के ऊपर पानी ढोला। 130।। मुंड मुंडाने वालों में श्रेष्ठ हे मुंडका! तूने सिर का तो मुंडन किया, परन्तु चित्त को न मुंडा। जिसने चित्त का मुंडन किया, उसने संसार का खंडन कर डाला।131।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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