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________________ 186] [जिनागम के अनमोल रत्न हैं सो पर ही हैं। आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्। परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।62 ।। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे? आत्मा परभाव का कर्ता है ऐसा मानना सो व्यवहारी जीवों का मोह है। य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं, स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम्। विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति।।69॥ जो नय पक्षपात को छोड़कर स्वरूप में गुप्त होकर सदा निवास करते हैं वे ही जिनका चित्त विकल्प जाल से रहित शान्त हो गया है ऐसे होते हुए, साक्षात् अमृत का पान करते हैं। . एकस्य बद्धो न तथा परस्य, चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलुचिच्चिदेव।।०॥ __ जीव कर्मों से बंधा है ऐसा एक नय का पक्ष है और नहीं बंधा है ऐसा दूसरे नय का पक्ष है; इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्ध में दो नयों के दो पक्षपात हैं, जो-तत्त्ववेत्ता पक्षपात रहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है। भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।130 ।। यह भेदविज्ञान अच्छिन्न धारा से तब तक माना चाहिये जब तक परभावों से छूटकर ज्ञान ज्ञान में ही प्रतिष्ठित-स्थिर हो जाये। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।131।। जो कोई सिद्ध हुएं हैं वे भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं और जो कोई बंधे हैं वे उसी के अभाव से बंधे हैं।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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