SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 180] [जिनागम के अनमोल रत्न विज्जारह मारूढो मणोरह पहेसु भमइ जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वा ।। चिन्मूर्ति मनरथ पंथ में, विद्यारथारूढ़ घूमता। जिनराज ज्ञान प्रभावकर सम्यक्तदृष्टि जानना।।236।। अज्झबसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स।। मारो-न मारो जीव को, है बंध अध्यवसान से। यह आतमा के बंध का, संक्षेप निश्चयनय वि. ।।262।। एवं बवहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण। णिच्छयणयासिदा पुण मणिणो पावंति णिब्वाणं।। व्यवहारनय इस रीत जान, निषिद्ध निश्चयनयहि से। मुनिराजे जो निश्चयनयाश्रित, मोक्ष की प्राप्ति करे।।272।। आदा खु मज्झ णाणं आदा में दसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा में संबरो जोगो।। मुझ आत्म निश्चय ज्ञान है, मुझ आत्म दर्शन चरित है। मुझ आत्म प्रत्याख्यान अरू, मुझ आत्म संवर योग है।।277।। दिट्ठी जहे व णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव। जाणइ य बंधमोक्खं कम्युदयं णिज्जरं चेव।। ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक, नहीं वेदक अहो। जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बंध त्यों ही मोक्ष को।।320।। मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदब्बेसु।। तू स्थाय निज को मोक्षपथ में, ध्या अनुभव तू उसे। उसमें हि नित्य विहार कर, न विहार कर परद्रव्य में।।412।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy