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________________ 176] [जिनागम के अनमोल रत्न मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूं यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणुमात्र नहीं अरे।।38।। अरसमरू बमगंधं अब्बत्तं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गंध-व्यक्तिविहीन है। निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंग से।।4।। जीवस्स णत्थि बण्णो ण विगंधोणविरसो णविय फासो। पा वि रूपं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं।। जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि।। जीवस्स णत्थि बग्गो ण बग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्ाप्पट्ठाणा व य अणुभागठाणाणि।। जीवस्स पत्थि के ई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया के ई ।। णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धि ठाणा वा।। णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण दु एदे सब्वे पोग्गलदब्बस्स. परिणामा।। नहिं राग जीव के द्वेष नहिं, अरू मोह जीव के हैं नहीं। प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरू नोकर्म भी जीव के नहीं।।51।। नहीं वर्ग जीव के, वर्गणा नहिं, कर्मस्पर्द्धक हैं नहीं। अध्यात्मस्थान न जीवके, अनुभागस्थान भी है नहीं ।।52।। जीव के नहीं कुछ योगस्थान रू, बंधस्थान भी हैं नहीं। नहिं उदयस्थान न जीव के, अरू स्थान मार्गणा के नहीं।।3।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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