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________________ 170] [जिनागम के अनमोल रत्न (4) अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया दान में तत्पर हो, मन-वचन-काया के विषय में कोमल परिणामी हो ये 'पीत लेश्या' वाले के चिन्ह हैं। 1515 ।। . (5) दान देने वाला हो, भद्रपरिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, कष्टरूप तथा अनिष्टरूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरूजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो ये सब 'पद्मलेश्या' वाले के लक्षण हैं।।516।। (6) पक्षपात न करना, निदान को न करना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि में स्नेह रहित होना, ये सब 'शुक्ल लेश्या' वाले के लक्षण हैं ।।517 ।। चदुगतिभब्बो सण्णी, पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो। जागारो सल्लेसो, सलद्धि गो सम्ममुबगमई ।। जो जीव चार गतियों में से किसी एक गति का धारक तथा भव्य, संज्ञी, पर्याप्त, विशुद्धि-सातादि के बन्ध के योग्य परिणति से युक्त, जागृत-स्त्यान गृद्धि आदि तीन निद्राओं से रहित, साकार उपयोगयुक्त और शुभ लेश्या का धारक होकर करणलब्धिरूप परिणामों का धारक होता है वह जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। 1652।। .. चत्तारि वि खेत्ताई, आउगवेधण होइ सम्मत्तं । . अणुवदमह ब्वदाई, ण लहइ. देवाउगं मोत्तुं।। चारों गति संबंधी आयुकर्म का बन्ध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है; किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते।।653।। णिक्खेवे एयत्थे, णयप्पमाणे णिरूत्ति अणियोगे। मग्गइ बीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसम्भावं ।। जो भव्य उक्त गुणस्थानादिक बीस भेदों को निक्षेप एकार्थ नय, प्रमाण, निरूक्ति, अनुयोग आदि के द्वारा जान लेता है वही आत्मसद्भाव को समझता है।733।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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