SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168] [जिनागम के अनमोल रत्न एगणिगोदसरीरे, जीवा दब्बप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अणंतगुणा, सब्वेणविदीदकालेण।। समस्त सिद्धरसि का और सम्पूर्ण अतीत काल के समयों का जितना प्रमाण है द्रव्य की अपेक्षा से उनसे अनन्तगुणें जीव एक निगोदसरीर में रहते हैं। 196।। । अत्थि अणंता जीवा, जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंक सुपउरा, णिगोदवासं ण मुंचंति।। ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं कि जिन्होंने त्रसों की पर्याय अभी तक प्राप्त ही नहीं की और जो निगोद अवस्था में होने वाले दुलेश्यारूप परिणामों से अत्यंत अभिभूत रहने के कारण निगोद स्थान को कभी नहीं छोड़ते। 197।। जाणइ तिकालविसए, दब्बगुणे पज्जए य बहुभेदे। पच्चक्खं च परोक्खं, अणेण णाणं ति णं वेंति।।। जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत भविष्यत् वर्तमान कालसंबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष ।।299 ।। सुदकेवलं च णाणं, दोण्णि वि सरिसाणिहोंति बोहादो। सुदणाणं तु परोक्खं, पच्चक्खं केवलं णाणं।। ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं । परन्तु दोनों में अन्तर यही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है।।369 ।। पहिया जे छप्पुरिसा, परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि । फलभरियरूक्खमेगं, पेक्खिता ते विचितंति।। णिम्मूल खंध साहुबसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाई। खाउं फलाइं इदि जं, मणेण वयणं हवे कम्मं ।। कृष्ण आदि छह लेश्या वाले कोई छह पथिक वन के मध्य में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने-अपने मन में इस प्रकार विचार करते हैं और उसके अनुसार वचन कहते हैं । कृष्णलेश्या वाला विचार
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy