SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [161 विकल्प रहित आत्मा का शुद्ध भावपूर्वक निरन्तर चिन्तवन करना चाहिये।।65।। णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झत्थभावणाए सुद्ध प्पं चिन्तये णिच् ।। जीव निश्चयनय से श्रावकधर्म और मुनिधर्म से भिन्न है। इसलिये माध्यस्थभाव-रागद्वेषरहित परिणामों से शुद्धात्मा का ही सदा ध्यान करना चाहिये।।82।। (29) अध्यात्म रहस्य शुद्धः स्वात्मा यथा साक्षात् क्रियते ज्ञानविग्रहः। विशिष्टभावना-स्पष्ट-श्रुतात्मा दृष्टिरत्र सा।। जब जिसके द्वारा शुद्धात्मा ज्ञान शरीरी और विशेष भावना के बल से श्रुत को स्व में स्पष्ट करता है तब साक्षात्-प्रत्यक्षरूप से प्रतिभास होता है इसे अध्यात्म योग शास्त्र में 'दृष्टि' कहा है। भावार्थ - ध्याति लक्षण बाद शुद्ध स्वआत्मा जिसके द्वारा साक्षात् प्रत्यक्ष देखने में आता है उसका नाम दृष्टि है। ऐसी दृष्टि बाह्य चक्षु द्वारा देखने वाली नहीं परन्तु वह अन्तर्दृष्टि है, जिसमें कोई व्यवधान अर्थात् पर्दा नहीं मात्र शुद्ध आत्मा को साक्षात् देखती है। रागादि विकल्प रहित 'ज्ञानशरीरी' दृष्टि में आता है अर्थात् विशेष भावना के बल से श्रुतज्ञान को स्व में स्पष्ट लीन किया है।।।। निज-लक्षणतो लक्ष्यं यद्वानुभवतः सुखम्। सा संवित्तिर्दृष्टिरात्मा लक्ष्यं दृग्धीश्च लक्षणम्।। अथवा लक्षण से लक्ष्य का जो भली प्रकार अनुभव करे-जाने-वह संवित्ति 'दृष्टि' कहलाती है। यहां आत्मा लक्ष्य और ज्ञान-दर्शन उसके लक्षण हैं। 100 सैव. सर्वविकल्पानां दहनी दुःखदायिनाम्। सैव स्यात्तत्परं ब्रह्म सैव योगिभिरर्थ्यते ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy