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________________ 152] [जिनागम के अनमोल रत्न संयुक्त हो तो महामणि के गुरूत्ववत् पूजनीक है। बहुत फल का दाता महिमा योग्य है।।15।। संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि। असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ।। .. कल्पवृक्ष का तो संकल्प योग्य जिसका वचन से याचना करे ऐसा फल है तथा चिन्तामणि का भी चिन्तवन योग्य मन से जिसकी याचना करे ऐसा ही फल है तथा धर्म से संकल्प योग्य नहीं और चिंतवन योग्य नहीं ऐसा कोई अद्भुत फल प्राप्त होता है। 22 ।।। - भावार्थ - जैसे कोई सिंह की डाड़ में आया पशु अपने शरीर को चबाता जो सिंह उसको तो विचारता नहीं और क्रीड़ा करने का उपाय करे। वहाँ बड़ा आश्चर्य होता है। ऐसे जन्म-मरण है वह यम की डाड़ है। उसके बीच काल को प्राप्त हुआ यह लोक उसे अपनी आयु को हरता जो काल उसका विचार ही नहीं करता और राज्यादिक पद लेने का नाना उपाय करता है सो यह बड़ा आश्चर्य है। ऐसा मूर्खपना छोड़ यम का चिन्तवन करके विषय वांछा करना योग्य नहीं है ।।34 ।। अन्धादयं महानन्धो विषयान्धी कृतेक्षणः। चक्षुषाऽन्धो न जानाति विषयान्धो नः केनचित्।। विषयों से अन्ध किया है-सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्र जिसका ऐसा यह जीव है सो अन्ध से भी महाअंध है। अंध है वह तो नेत्र से ही नहीं जानता है परन्तु विषयों से अन्ध है वह तो किसी से भी नहीं जानता है ।।35 ।। आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य किं कियदायाति वृथा सो विषयैषिता। अहो प्राणी! यह आशारूप गहरा गड्ढा सभी प्राणियों के है। जिसमें समस्त त्रैलोक्य की विभूति अणु समान सूक्ष्म है । जो त्रैलोक्य की विभूति एक
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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