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________________ 148] [जिनागम के अनमोल रत्न जाने पर भी फल देती है। इसी कारण हिंसा कषाय भावानुसार ही फल देती है। 54।। एकः करोति हिंसा भवन्ति फलभागिनो बहवः। बहबो विदधति हिंसा हिंसाफलभुग्भवत्येकः।। एक पुरूष हिंसा करता है परन्तु फल भोगने वाले बहुत होते हैं। इसी तरह हिंसा अनेक पुरूष करते हैं परन्तु हिंसा का फल भोगने वाला एक पुरूष होता है ।।55 ।। कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलं ।। हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे। इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत्।। किसी पुरूष को तो हिंसा उदयकाल में एक ही हिंसा का फल देती है और दूसरे किसी पुरूष को वही हिंसा बहुत अहिंसा का फल देती है तथा अन्य किसी को अहिंसा उदयकाल में हिंसा का फल देती है और दूसरे किसी को हिंसा अहिंसा का फल देती है अन्य नहीं ।।56-57।।। इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढ़ दृष्टीनाम्। गुरूवो भवन्ति शरणं प्रबुद्ध नयचक्र सञ्चाराः।। इस प्रकार अत्यन्त कठिनता से पार हो सकने वाले अनेक प्रकार के भंगों से युक्त गहन बन में मार्ग भूले हुए पुरूष को अनेक प्रकार के नयसमूह के ज्ञाता श्री गुरू ही शरण होते हैं ।।58 ।। अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम्। खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम्।। जिनेन्द्र भगवान का अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला और दुःसाध्य नयचक्र धारण करने पर मिथ्याज्ञानी पुरूषों के मस्तक को तुरन्त ही खण्ड-खण्ड कर देता है। 156 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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