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________________ 12] [जिनागम के अनमोल रत्न ___ अर्थ :- जो शास्त्रों को पढ़ लेते हैं, परन्तु आत्मा को नहीं जानते, वे लोग भी जड़ ही हैं तथा निश्चय से इसी कारण ये जीव निर्वाण को नहीं पाते, यह स्पष्ट है। अंतरंग में ध्यान से, देखत जो असरीर। शरम जनक भव ना धरे, पिये न जननी क्षीर।।6।। बिरला जाणहिं तत्तु बुह बिरला णिसुणहिं तत्तु। बिरला झायहिं तत्तु जिय बिरला धारहिं तत्तु।। बिरला जानै तत्त्व को, अरु सुनन्त है कोय। बिरला ध्यावै तत्त्व को, बिरला धारै कोय। अर्थ :- बिरले पण्डित ही आत्मतत्त्व को जानते हैं, बिरले ही श्रोता तत्त्व को सुनते हैं, बिरले जीव ही तत्त्व को ध्याते हैं और बिरले ही तत्त्व को धारण करके स्वानुभवी होते हैं। जन्म-मरण इकला करे, दुख-सुख भोगे एक। नर्क गमन भी एकला, शिवसुख पावे एक।।70॥ यदि त जावे एकला, यह लख तज परभाव। आत्मा ध्यावो ज्ञानमय, शीघ्र मोक्षसुख पाव।।1।। जो पाउ विसो पाउ मुंणि, सब्बुइ को विवि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ। पाप रूप को पाप तो जानत जग सहु कोई। पुण्य तत्त्व भी पाप है, कहत अनुभवी कोई।। अर्थ :- पाप को पाप तो सब कोई जानते हैं, परन्तु जो पुण्य को भी पाप कहता है, ऐसा कोई विरला पण्डित ज्ञानी होता है। जो जिण सो हउँ सो जि हउँ एहउ भाउ थिभतु। मोक्खहँ कारण जोइया अण्णुण तंतुण मंतु।75॥ जो जिन बह मैं, बह ही मैं, कर अनुभव निर्धान्त। हे योगी! शिव हेतु ये, अन्य न मंत्र न तंत्र।। अर्थ :- जो जिनदेव है वह मैं हूँ, वही मैं हूँ, इसकी भ्रान्ति रहित होकर भावना कर। हे योगिन्! मोक्ष का कारण कोई अन्य मन्त्र-तन्त्र नहीं है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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