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________________ 126] [जिनागम के अनमोल रत्न औरन का मरना अविचारत, तू अपना अमरत्व विचारै। इन्द्रिय रूप महागज के वशीभूत भया, भव भ्रान्ति निहारै।। आजहिं आवत वा कल के दिन, काल न तू यह रञ्चचितारै। तौ ग्रह धर्म जिनेश्वर भाषित, जो भव सन्तति बेग निवारै।। चाहत है सुख, क्या पिछले भव दान दिया, अरू संयम लीना। नातर या भव में सुख प्रापति हो न भई, सो पुराकृत बीना।। जो नहिंडारत बीज मही पर धान लहै न, कृषक मति हीना। कीटक भक्षित ईख समान शरीर विषै तज मोह प्रवीना। आयुष अर्द्ध अरे मति मन्द, व्यतीत भई तब नींद मंझारी। अर्द्ध त्रिभाग बुढ़ापन शैशव, यौवन के वश व्यर्थ विसारी। आतम में दृढ़ धार सुधी ग्रह, ज्ञान असि मोहपास विदारी। मुक्ति रमा रमणी वश कारण, हो नित सम्यक्चारित धारी।। सांड समान अनस्थित हो विचरै, जुअसंग स्वछन्द अकेला। छोड़ दिया निज संगति को, अवलाजन सों कर आपन मेला।। जो तिन में अभिलाष नहीं तब, तौ तिन रैत भ्रमैकिम गैला। क्यों न रहै मुनि संगति में, धर उत्तम चारित पन्थ सुहेला।। भो मुनि अर्द्ध जले शव तुल्य निहारतु मैं, अरू भूत समाना। भीत नहीं जिनके घट में पुन बोलत, तो संग शंक न आना।। राक्षसी है वनिता, मम भक्षण को उतरी, यह जान सुजाना। भाग हिये धर मृत्यु तनो भय, तिष्ठ न व्हों क्षण एक प्रमाना।। प्रेताकार आकृति वाले, आधे जले मृतक समान तुमको देखकर जिनको भय नहीं है, तुम्हारे सामने अरे! जो बात करती हैं, वे स्त्रियां धरती पर राक्षसी के समान हैं और मुझको खाने आयी हैं, ऐसा मानकर मरण भय से शीघ्र वहां से भाग जा, तू क्षण भर भी वहां मत ठहर ।।22 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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