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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [119 (17) स्वयंभू स्तोत्र पूज्यं जिनं त्वाऽर्चयतो जनस्य, सावद्य लेशो बहु-पुण्य-राशौ। दोषाय नाऽलंकणिका विषस्य, न दूषिका शीत-शिवाऽम्बुराशौ।। हे पूज्य जिन श्री वासुपूज्य! आपकी पूजा करते हुए प्राणी के जो सावद्यलेश होता है, वह बहुपुण्य राशि में दोष का कारण नहीं बनता, विष की एक कणिका शीतल तथा कल्याणकारी जल से भरे हुए समुद्र को दूषितविषैला नहीं करती।।12-3।। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः। अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितानयात्।। आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है। प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्त स्वरूप सिद्ध होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से अनेकान्त में एकान्तरूप सिद्ध होता है। 18-18 ।। स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं, चरमचरंचजगत् प्रतिक्षणम्। इति जिन! सकलज्ञलाञ्छनं, वचनमिदं वदतांवरस्य ते॥ हे मुनिसुव्रत जिन! आप वदतांबर हैं-प्रवक्ताओं में श्रेष्ठ हैं-आपका यह वचन कि 'चर और अचर जगत प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध (ध्रौव्यउत्पाद-व्यय) लक्षण को लिये हुए है'-सर्वज्ञता का चिन्ह है। 204 ।। यदि मन शंकाशील हो गया हो तो द्रव्यानुयोग का विचार करना योग्य है, प्रमादी हो गया हो तो चरणानुयोग का विचार करना योग्य है और कषायी हो गया हो तो धर्मकथानुयोग का विचार योग्य है और जड़ हो गया हो तो गणितानुयोग (करणानुयोग) का विचार करना योग्य है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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