SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री रत्नत्रय विधान अक्षत उत्तम ज्ञान प्रकट कर अक्षय पद प्रभु पाऊँ । एक अखंड अभेद आत्मा ही मैं प्रतिपल ध्याऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शील स्वगुणमय सम्यक् ज्ञान कुसुम की महिमा न्यारी। काम व्याधि विध्वंसक पावन महके निज फुलवारी॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। अनुभव रस निर्मित चरु लाऊं शाश्वत तृप्ति प्रदाता। क्षुधारोग-विध्वंसक उत्तम निरुपम सुख के दाता ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् ज्ञान प्रदीप प्रजाखू मोह तिमिर भ्रम नारों। घाति चार क्षय करके प्रभु जी केवल ज्ञान प्रकायूँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ध्यान धूप का बल पाकर मैं आठों कर्म जलाऊँ । नित्य निरंजन पदवी पाऊँ धर्म मार्ग पर आऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
SR No.007157
Book TitleRatnatray Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy