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________________ उन्नीसवाँ बोल और दर्शन, ज्ञान आदि गुण वे विशेष हैं । सामान्य विशेष को स्पर्श नहीं करता है, सामान्य सामान्य में है, विशेष विशेष में है। सामान्य में विशेष नहीं है और विशेष में सामान्य नहीं है। सामान्य ऐसे आत्मा विशेष ऐसे ज्ञानगुण को स्पर्श करे तो सामान्य और विशेष एक ही जायें, दोनों पृथक् नहीं रहें। अनंतगुणों का समूहरूप एकाकार आत्मा मात्र ज्ञानगुण को स्पर्श नहीं करता है। यहाँ शुद्ध द्रव्य की श्रद्धा कराई है। शरीररहित, कर्मरहित, विकाररहित, गुणभेदरहित ऐसे अभेद शुद्धद्रव्य की दृष्टि करानी है। ___ शुद्धद्रव्य एकरूप है, यदि वह गुणभेद का स्पर्श करे तो द्रव्य शुद्ध नहीं रहता है। गुणभेद है उसका निषेध कराते हैं । गुणभेद बिलकुल नहीं होता तो निषेध किसका करते? सामान्य विशेष में व्याप्त हो जाये तो सामान्य पदार्थ एकरूप नहीं रहता। अतः यहाँ कहते हैं कि सामान्य स्वभाव ने ज्ञानगुण को स्पर्श ही नहीं किया है। यह ज्ञानगुण है और आत्मा ज्ञानगुण का धारक है, ऐसे भेद के विकल्प से धर्म नहीं होता है, परन्तु आत्मा अखंड ज्ञाता एकाकार है, उसकी श्रद्धा करने से धर्म होता है। __इस अठारहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है--अ-नहीं, लिंग-गुण, ग्रहण-पदार्थज्ञान, वह जिसको नहीं है ऐसा आत्मा है। अर्थात् आत्मा गुणविशेष से अस्पर्शित ऐसा शुद्धद्रव्य है। इस बोल में ज्ञानगुण और 'ज्ञान का धारक आत्मा गुणी - ऐसे गुण-गुणी भेद का निषेध कराकर एकाकार आत्मा की श्रद्धा कराते हैं। गुणभेदरहित आत्मा तेरा स्वज्ञेय है, ऐसा तू जान, इसप्रकार आचार्य भगवान कहते हैं। इसप्रकार स्वज्ञेय का श्रद्धा-ज्ञान करना धर्म है। उन्नीसवाँ बोल न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति पर्यायविशेषानालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य। अर्थ :- लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोधविशेष जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्धद्रव्य है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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