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________________ ६६ अलिंगग्रहण प्रवचन कर्ता-हर्ता होता है, वह मूढ़ है, अज्ञानी है, उसे आत्मा के धर्म की खबर नहीं है। परवस्तु के ग्रहण-त्याग का भाव ही अधर्मभाव है। ___ कोई कहता है कि बाह्यलिंग की धर्म के लिये आवश्यकता नहीं है। चाहे जैसा बाह्यलिंग हो तो भी धर्म हो सकता है, यह मान्यता भी बहुत भ्रमपूर्ण है। चाहे जो लिंग हो और केवलज्ञान हो तथा मुनि होकर वस्त्र-पात्र रखे और . उस दशा में ही केवलज्ञान प्राप्त करे, इसप्रकार माननेवाला बहुत स्थूल भूल में है । वह तो बाह्य से भी मुनि नहीं है। पहले व्यवहार सिद्ध किया है। उतना व्यवहार स्वीकार करना पड़ेगा कि जब मुनिदशा होती है, तब नग्नदशा ही होती है और बाह्य उपकरण के रूप में मयूरपिच्छ, कमंडलु के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होता है। इतना स्वीकार करने के पश्चात् यहाँ तो इसप्रकार कहते हैं कि इनसे आत्मा नहीं पहिचाना जाता है। इस सत्रहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग-बाह्य धर्म चिह्न, ग्रहण ग्रहण । अर्थात् आत्मा बाह्य धर्मचिह्नों को ग्रहण नहीं करता है; परन्तु शुद्ध चिदानन्द स्वभाव को ग्रहण करता है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। ऐसा तेरे स्वज्ञेय को तू जान और श्रद्धा कर, ऐसा आचार्य भगवान कहते हैं और वह सम्यग्दर्शन का कारण है। अठारहवाँ बोल न लिंग गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति गुणविशेषानालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य। अर्थ :- लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है, इसप्रकार आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्धद्रव्य है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। तेरा अभेद आत्मा, गुणभेद का स्पर्श नहीं करता है। ऐसा स्वज्ञेय को तू जान। आत्मा वस्तु है । वह अनंतगुणों का पिंड है। वह मात्र ज्ञानगुणवाला नहीं है। अभेद आत्मा गुण के भेद को स्पर्श करे ऐसा नहीं है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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