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________________ सोलहवाँ बोल नारकी को द्रव्य और भाववेद दोनों नपुंसक होने पर भी वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। ज्ञानी कहते हैं कि इस संयोगदृष्टि को छोड़। स्त्री का, पुरुष का अथवा नपुंसक का शरीर ही तेरा नहीं है । जब शरीर ही तेरा नहीं है तो शरीर के निर्वाह के लिये तुझे परसन्मुख देखने की क्या आवश्यकता है? तू तो तेरे ज्ञान, दर्शन आदि स्वशक्ति के आधार से जीवित है और जो भाववेद का परिणाम है वह तो पापतत्त्व है, वह तेरा जीवतत्त्व नहीं है; अत: उसकी दृष्टि छोड़। द्रव्यवेद और भाववेद सम्यग्दर्शन अथवा धर्म को नहीं रोकता है। नारकी जीव द्रव्य और भाव से नपुंसकवेदी है तो भी आत्मा त्रिकाल अवेदी है; ऐसा भान करने से पुरुषार्थी नारकी जीव भी बहुत प्रतिकूल संयोग में होते हुए भी सम्यग्दर्शन रूप धर्म को प्राप्त कर सकता है। तू यहाँ मनुष्यत्व में धर्म प्राप्त न कर सके, ऐसा नहीं बनता है । अत: वेदों की दृष्टि छोड़ और अवेदी आत्मा की स्वसन्मुख दृष्टि कर-इसप्रकार कहने का आशय है। ___ इस सोलहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है -अ-नहीं, लिंग-स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद, ग्रहण-ग्रहण करना। जिसको स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद द्रव्य और भावरूप नहीं है अर्थात् आत्मा अवेदी है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा तो अपने ज्ञान, दर्शन, सुख आदि का वेदक है; परन्तु शरीर तथा विकारी भाव का वेदक नहीं है - इसप्रकार तेरा आत्मा तेरा स्वज्ञेय है, उसको तू जान। __ इस प्रमाण से स्वज्ञेय ऐसे आत्मा को श्रद्धा और ज्ञान में लेना, वही सम्यग्दर्शन का कारण है। सातवाँ प्रवचन माघ कृष्णा ८, गुरुवार, दि. २९/२/१९५१ यह आत्मा जिसप्रकार है, उसीप्रकार उसके असली स्वरूप को जाने और माने तो धर्म होता है । इसका अर्थ ऐसा होता है – उसने अपना यथार्थस्वरूप
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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