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________________ ३८ अलिंगग्रहण प्रवचन ज्ञेय ज्ञेय में हैं, ज्ञेय ज्ञान उपयोग में नहीं है। प्रश्न : ऐसा कहकर तो आपने सब ज्ञेयों को निकाल दिया ? उत्तर : ज्ञेयों को निकालने का प्रश्न ही नहीं उठता है; क्योंकि जो वस्तु किसी में मिश्रित हो गई है – प्रवेश कर गई हो, उसे निकालने का प्रश्न उठता है, परन्तु जो वस्तु जिसमें नहीं होती, उसे निकालने का प्रसंग ही नहीं रहता है। पंचपरमेष्ठी आदि परज्ञेय उनमें हैं, उनका ज्ञान उपयोग में अभाव है। शुभराग भी ज्ञेय है, उस शुभराग का भी ज्ञान उपयोग में अभाव है। उपयोग स्व-आत्मा का है, उसे आत्मा में रखा है, ऐसा कह सकते हैं। इस सातवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग-उपयोग, ग्रहण-ज्ञेयपदार्थों का आलंबन। उपयोग को ज्ञेयपदार्थों का आलंबन नहीं है, 'अलिंगग्रहण' का यहाँ ऐसा अर्थ होता है। जिस उपयोग को यहाँ ज्ञेयपदार्थों का आलंबन नहीं है; परन्तु स्व का आलंबन है, ऐसे उपयोग लक्षणवाला तेरा आत्मा है, इसप्रकार तेरे स्वज्ञेय को तू जान। इसप्रकार तेरे आत्मा को बाह्य पदार्थों के आलंबनयुक्त ज्ञान नहीं है; परन्तु स्वभाव के आलंबनयुक्त ज्ञान है – ऐसा तेरे आत्मारूप स्वज्ञेय को तू जान। आठवाँ बोल नलिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरणं यस्येत्यनाहार्यज्ञानत्वस्य। अर्थ :- जो लिंग को अर्थात् उपयोगनामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञानवाला है'; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा उपयोग को बाहर से नहीं लाता है। ऐसा तू जान। इस आठवें बोल में उपयोग बाहर से नहीं लाया जाता, ऐसा कहते हैं । अनादि . से मिथ्यादृष्टि का उपयोग परसन्मुख था, वह अब स्वयं कोई सत् समागम करे,
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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