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________________ ३४ अलिंगग्रहण प्रवचन लक्ष जाता है तो भी उस समय भी अपने स्वभाव के बहुमान से च्युत नहीं होता है। ___ इस समय सत् की बात दुर्लभ हो गयी है। सत्य बात बाहर प्रगट हो तो समझनेवाले और विरोध करनेवाले दोनों होते हैं । इस समय की क्या बात करें, परन्तु भगवान् ऋषभदेव की वाणी खिरने से पहले युगलियों को एक देवगति ही होती थी।जीव भी ऐसे ही परिणाम संयुक्त थे, परन्तु जब ऋषभदेव भगवान की वाणी खिरी और कानों में पड़ी, तभी चारों गतियाँ प्रारम्भ हो गईं। २४ दंडक में और सिद्धगति में जानेवाले हुए। कोई सिद्धगति में जानेवाले हुए, कोई साधक हुए और कोई नरक-निगोद में जानेवाले भी हुए। वाणी के कारण उसप्रकार नहीं हुआ; परन्तु सब की अपनी-अपनी योग्यता अनुसार हुआ। भगवान के समय जब ऐसा हुआ तो अभी ऐसा हो तो उसमें क्या नवीनता है? उपयोग पर का आलंबन नहीं लेता है। ___ यहाँ उपयोग का कथन होता है। उपयोग चैतन्य का लक्षण अथवा चिह्न है। उपयोग आत्मा का अवलंबन करता है। आत्मद्रव्य भी ज्ञेय है, गुण ज्ञेय है और पर्याय भी ज्ञेय है। उपयोग भी ज्ञेय है। उपयोग का स्वभाव जाननेदेखने का है, वह परज्ञेयों का अवलंबन नहीं करता है; क्योंकि परज्ञेयों में उपयोग नहीं है। जो जिसमें नहीं होता है, उसका अवलंबन वह किसप्रकार लेगा? परज्ञेयों में जानने-देखने का स्वभाव अर्थात् उपयोग नहीं है । अतः पर का अवलंबन लेवे, ऐसे उपयोग का स्वभाव नहीं है। प्रश्न : हम तो व्रतधारी हैं, प्रतिमाधारी है, उपदेशक हैं, अतः हमें यह सब सुनने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है; क्योंकि हमारी जो मान्यता है उसमें हमें भूल नहीं दिखाई देती है। ___ उत्तर : मेरे में भूल नहीं है। ऐसा माननेवाला कभी भी भूलरहित नहीं होता है। मेरे में हीनता है, ऐसा जो जानता है, उसे हीनता दूर करके अधिक होने का प्रसंग बन सकता है; परन्तु हीनता ही नहीं है, इसप्रकार कहता है तो हीनता दूर करने का प्रश्न ही नहीं है। संसारी जीवों को, जब तक वीतराग न हो,
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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