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________________ पांचवाँ बोल २९ ऊपर कहे अनुसार अनुमानमात्र हो तो कभी भी केवलज्ञान नहीं होगा । अतः साधकदशा में स्वसंवेदन सहित अनुमान है। तेरा ज्ञान स्व अथवा पर को जानने में स्वसंवदेन सहित कार्य न करे तो तेरा जानना यथार्थ नहीं है । तथा तेरा आत्मा ज्ञाता के अतिरिक्त ज्ञेय भी है। वह मात्र अनुमान करनेवाला नहीं है; परन्तु समस्त जगत के स्व तथा पर, जड़ तथा चेतन सर्व पदार्थों को स्वसंवेदन ज्ञानपूर्वक जानता है; ऐसा इस ज्ञेय आत्मा का स्वभाव है, ऐसा तू जान । 'तू जान' का रहस्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य भगवान ने गाथा में जाण ऐसा कहा है । तत्पश्चात् श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इतना विस्तार करके 'अलिंगग्रहण' के बीस बोलों से भिन्न-भिन्न भाव समझाकर आत्मा को ऐसा जान इसप्रकार कहा । वे पंचमकाल के मुनि हैं। पंचमकाल कठिन है, अतः ये शब्द क्या चौथे काल के जीवों के लिये होंगे? भाई ! ऐसी बात नहीं है । यह पाठ तथा टीका पंचमकाल के जीव नहीं समझ सकते होते तो 'तू जान' ऐसा आदेश कैसे करते? भाई ! पंचमकाल के जीवों के लिये ही यह टीका की है और इसे जीव समझ लेगें – ऐसा उन्हें विश्वास है । सहज योग बन गया है। ज्ञानी पुरुष 'तू जान' कह कर आदेश दें, तब उनके रहस्य के ज्ञाता न हों, ऐसा नहीं बन सकता है। समझानेवाले और समझनेवाले दोनों में परस्पर निमित्त - नैमित्तिक संबन्ध है। आचार्य ने कहा है कि 'तू जान' अतः मैं मेरे आत्मा को जान सकता हूँ, इसमें कोई काल बाधा नहीं करता है। इसप्रकार विचार कर आत्मा का स्वरूप यथार्थ समझने के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये । जिसप्रकार पुण्य-पाप से लाभ होता है, ऐसा माननेवाला जीव आत्मा को नहीं जानता है; उसीप्रकार इन्द्रियों से ज्ञान होता है और अनुमातामात्र आत्मा है, इसप्रकार माननेवाला जीव भी आत्मा को नहीं जानता है । जीव के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करे तो धर्म हो । - ये पांच बोल पूर्ण हुए। इनमें नास्ति से कथन किया है। अब छठवें बोल में अस्ति से कथन करते हैं।.
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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