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________________ अलिंगग्रहण प्रवचन १८ इन्द्रियगम्य चिह्न से ज्ञात नहीं होता। जैसे शरीर छोटे से बड़ा होता है, ऐसे बाह्य चिह्न से आत्मा का निर्णय नहीं होता । अतः आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है - ऐसा उसमें से अर्थ निकलता है। आत्मा ऐसा ज्ञेयपदार्थ है कि वह ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञात होता है - उसमें इन्द्रिय के अनुमान की आवश्यकता नहीं है । चौथा बोल न लिंगादेव परैः ग्रहणं यस्येत्यनुमेयमात्रत्वाभावस्य । - अर्थ :- दूसरों के द्वारा – मात्र लिंग द्वारा ही जिसका ग्रहण नहीं होता, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र (केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य) नहीं है, ' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा केवल अनुमान से ही ज्ञात हो, ऐसा वह ज्ञेयपदार्थ नहीं है । इस चौथे बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ = नहीं, लिंग = अनुमान ज्ञान और ग्रहण = जानना । अर्थात् आत्मा मात्र अनुमान ज्ञान का विषय हो, ऐसा यह ज्ञेय पदार्थ नहीं है। यहाँ 'मात्र अनुमान' कहा है । 'मात्र ' कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा आंशिक स्वसंवेदन सहित अनुमान का विषय तो है, परन्तु केवल अनुमान का विषय नहीं है। यदि आत्मा केवल अनुमान का ही विषय हो तो आत्मा कभी भी प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं हो सकता। केवलज्ञान में तो वह सर्वथा प्रत्यक्ष ज्ञात होता है और निचली दशा में श्रुतज्ञान में प्रतीति में आता है । साधकदशा में भी मात्र अनुमान से ज्ञात होने योग्य नहीं। साधकदशा में मात्र अनुमानज्ञान से ज्ञात होता हो तो स्वसंवेदन आंशिक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । और स्वसंवेदनज्ञान साधकदशा में आंशिक प्रत्यक्ष न हो तो वह बढ़कर संपूर्ण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अत: आत्मा साधकदशा में भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमानज्ञान का विषय होता है । जिनको यह आत्मा जानना है, उन्हें स्वसंवेदनज्ञान होना ही चाहिये तो ही वे जीव इस आत्मा को जान सकते हैं। अन्य जीव स्वसंवेदनसहित
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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