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________________ अलिंगग्रहण प्रवचन परन्तु इनमें से एक भी न हो तो भिखारी को माल नहीं मिलता है। उसीप्रकार यह आत्मा ग्राहक है उसे माल लेना है अर्थात् ग्रहण करने का - जानने का कार्य करना है। यदि उसके पास केवलज्ञानरूपी नगद रुपया हो तो सब को प्रत्यक्ष जान लेता है। यदि वह न हो तो अल्पज्ञ अवस्था में अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभाव की प्रतीतिरूप प्रतिष्ठा हो तो वह जानने का कार्य यथार्थ कर सकता है; परन्तु जिसके पास केवलज्ञानरूपी नगद रुपया नहीं है और अखंड ज्ञायक की प्रतीति रूप प्रतिष्ठा नहीं है, उस जीव को भिखारी की भांति ज्ञेय का ज्ञान यथार्थ नहीं होता है। __ (१) अज्ञानी जीव 'इन्द्रियों से ज्ञान होता है'; ऐसा मानते हैं, वह मान्यता मिथ्या है; क्योंकि जड़ इन्द्रियों का आत्मा में अत्यंत अभाव है। अतः इन्द्रियाँ आत्मा को किंचित् भी सहायता नहीं कर सकती हैं। (२) इन्द्रियों में ज्ञानस्वभाव का अभाव है। जिसमें ज्ञान स्वभाव ही नहीं है, वे ज्ञान किसप्रकार करें? अर्थात् करते ही नहीं हैं। अतः ग्राहक अर्थात् ग्रहण करनेवाला ज्ञाता जिसप्रकार है, उसे उसीप्रकार यथार्थ जानना चाहिये। यह ज्ञेय अधिकार है। स्वयं के द्रव्य-गुण-पर्याय तथा पर के द्रव्य-गुण-पर्याय में से किसी एक को भी आत्मा इन्द्रियों से नहीं जानता है; परन्तु अपने ज्ञान से जानता है; ऐसा निर्णय करें उसका ज्ञान सम्यक् होता है। अज्ञानी वर्तमान पर्याय का ज्ञान संयोग से करता है। ज्ञायकस्वभाव का भान नहीं होने के कारण अज्ञानी भ्रांति का सेवन करता है और मानता है कि इस हाथ से लकड़ी ऊपर उठी, आँख से प्रत्यक्ष दिखाई दिया, शब्द से ज्ञान हुआ, दुकान पर मैं था तो रुपया आया - ऐसा संयोग से देखता है। अपने ज्ञान की पर्याय इन्द्रियों से होती है, इसप्रकार माननेवाला जीव परपदार्थों की पर्याय को भी संयोग से देखता है; वह आत्मा नहीं कहलाता है। अज्ञानी जीव भले ही यह मानता हो कि मुझे ज्ञान, इन्द्रियों से होता है; परन्तु वास्तव में तो उसे भी ज्ञान तो आत्मा से ही होता है; परन्तु वह उसप्रकार
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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